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प्रख्यात चित्रकार माइकल एंजेलो से कई चित्रकार ईर्ष्या करते थे। उन्हीं में से एक चित्रकार ने सोचा कि मैं एक ऐसा चित्र बनाऊंगा जिसके आगे एंजेलो की कलाकृति फीकी पड़ जाएगी। यह सोचकर उसने काफी मेहनत से एक महिला का चित्र बनाया। उसने उस चित्र को एक ऊंचे स्थान पर रखा ताकि वहां से गुजरते लोग उसे आसानी से देख सकें। यद्यपि चित्र बहुत सुंदर था, फिर भी चित्रकार को अहसास हो रहा था कि इसमें कुछ कमी रह गई है। पर कमी कहां है और क्या है, यह जानने में वह खुद को असमर्थ पा रहा था। एक दिन एंजेलो उस रास्ते से जा रहे थे। उनकी नजर उस चित्र पर पड़ी। उन्हें वह चित्र बड़ा खूबसूरत लगा और उसमें जो कमी थी, वह भी उनके ध्यान में आ गई। एंजेलो चित्रकार के घर पहुंचे। चित्रकार ने एंजेलो को पहले कभी देखा नहीं था। उसने उनका स्वागत किया और आने का कारण पूछा। एंजेलो ने कहा, 'तुमने चित्र तो बहुत सुंदर बनाया है, पर मुझे इसमें एक कमी लग रही है। 'चित्रकार बोला, 'हां मुझे भी आभास हो रहा है कि कुछ कमी रह गई है।' एंजेलो ने कहा, 'जरा तुम अपनी कूची देना, मैं उस कमी को पूरा कर देता हूं।' चित्रकार बोला, 'मैने उसे बड़ी मेहनत से बनाया है, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे हाथ से मेरा चित्र बिगड़ जाए।' एंजेलो ने कहा, ' विश्वास करो, मैं तुम्हारा चित्र खराब नहीं करूंगा।' उस चित्रकार से कूची लेकर एंजेलो ने चित्र की दोनों आंखों में दो बिंदी लगा दी। दरअसल चित्रकार आंखों में दो काली बिंदियां लगाना भूल गया था, जिस कारण चित्र अपूर्ण लग रहा था। अब वह चित्र सजीव प्रतीत होने लगा। उसका सौंदर्य बढ़ गया। उस चित्रकार के पूछने पर जब एंजेलो ने अपना नाम बताया तो चित्रकार के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उसने एंजेलो को बताया कि वह उनके बारे में क्या सोचता रहा था। उसने एंजेलो से क्षमा मांगी।
प्रेषक - जीवनलाल आंजना,बाड़मेर
भारतीय मनीषी हमेशा ही इच्छा और अनिच्छा के बारे में सोचता रहा है। वस्तुत: जो कुछ हम हैं, उसे एक लालसा में सिमटाया जा सकता है। यानी जो कुछ भी हम हैं, वह सब अपनी इच्छा के कारण से हैं। यदि हम दुखी हैं, यदि हम दासता में हैं, यदि हम अज्ञानी हैं, यदि हम अंधकार में डूबे हैं, यदि जीवन एक लंबी मृत्यु है, तो वह केवल इच्छा के कारण है।
क्यों है वह दुख? क्योंकि हमारी इच्छा पूरी नहीं हुई। इसलिए यदि आपको कोई इच्छा नहीं है, तो आप निराश कैसे होंगे? यदि आप निराश होना चाहते हैं, तो और अधिक इच्छा करें। बस, आप निराश हो जाएंगे। यदि आप और दुखी होना चाहते हैं, तो अधिक अपेक्षा करें, अधिक लालसा करें, और अधिक आकांक्षा से भरें और आप और भी अधिक दुखी हो जाएंगे। यदि आप सुखी होना चाहते हैं, तो फिर कोई इच्छा न करें। यही आंतरिक जगत के काम करने का गणित है। इच्छा ही दुख को उत्पन्न करती है। यदि लालसा असफल हो जाए, तो वह अनिवार्यत: दुख को निर्मित करती है। परंतु यदि इच्छा सफल भी हो जाए, तो भी वह दुख को ही जन्म देती है, क्योंकि तब आप जैसे ही सफल होते हैं, आपकी लालसा आगे बढ़ गई होती है।
इच्छा सदैव ही आपसे आगे रहती है। जहां कहीं भी आप होंगे, इच्छा आप से आगे होगी और आप कभी भी उस बिंदु को नहीं पहुंच पाएंगे, जहां आप और आपकी इच्छाएं मिल सकें। इच्छा का केंद सदा ही भविष्य में होता है, वर्तमान में नहीं। आप सदा ही वर्तमान में होते हैं और इच्छा सदा ही भविष्य में होती है। इच्छा क्षितिज की भांति होती है। आप देखते हैं कि बस कुछ ही मील दूर पर आकाश पृथ्वी को छू रहा है, परंतु आगे बढ़ें और जाकर देखें उस जगह जहां पर आसमान पृथ्वी को छूता है। जितना आप आगे जाते हैं, क्षितिज भी उतना ही आगे बढ़ जाता है।
वास्तव में, वह क्षितिज कहीं छूता नहीं है। वह छूना; वह संबंध की रेखा मात्र एक भ्रम है, झूठ है। इसलिए जब आप उस क्षितिज को खोजने जाएंगे तो आप उसे कहीं भी नहीं पाएंगे। वह सदैव वहां होगा, परंतु आप उससे कभी भी नहीं मिल जाएंगे। आप इसी भ्रम में रह सकते हैं कि क्षितिज वहां पर है, बस थोड़ा ही अंतर और पार करना है। आप सारी पृथ्वी का चक्कर लगा सकते हैं और अपने घर लौट सकते हैं, परंतु आप क्षितिज को कहीं भी नहीं पाएंगे। परंतु भ्रांति बनी रह सकती है।
इच्छा भी क्षितिज की भांति है। ऐसा प्रतीत होता है कि दूरी ज्यादा नहीं- जरा ही प्रयत्न और, जरा ही तेजी और, वह बिल्कुल पास ही है। परंतु आप वहां कभी नहीं पहुंचते। क्या आपने कभी भी कुछ भी इच्छा से पाया है या सदैव निराशा ही हाथ लगी है? राख हाथ में बचती है और तो कुछ भी नहीं। यदि आप इच्छा करना बंद कर दें, तब दौड़ नहीं होगी। किसी चीज के पीछे दौड़ नहीं, भीतर कोई गति नहीं, कोई लहर नहीं। मात्र एक शांत चेतना की झील, एक बिना लहर की शांत झील। परंतु क्या इसका तात्पर्य यह है कि जब इच्छा उठनी बंद हो जाती है, तो क्या सारे काम भी रुक जाते हैं? हमने कृष्ण को बहुत कुछ करते हुए देखा है। हमने बुद्ध को बहुत कुछ करते हुए देखा है, ज्ञान की उपलब्धि के बाद भी। तो फिर क्या आशय है सब कर्मों का? इसका मतलब सब कर्मों के कारण की समाप्ति नहीं है। इसका आशय है कारण का अभाव हो जाना। जब इच्छा नहीं होती है, तो सारे कर्म एक बिल्कुल भिन्न ही गुण को प्राप्त करते हैं।
जब कोई इच्छा नहीं होती, तो कर्म एक खेल हो जाता है, जिसमें कि कोई पागलपन नहीं होता, जिसके पीछे कोई विक्षिप्तता नहीं बचती, कोई खयाली पुल बांधने को नहीं होता। तब वह एक खेल हो जाता है।
प्रेषक - अश्विन p आंजना, उज्जैन {MP}
प्रेषक - अश्विन p आंजना, उज्जैन {MP}

